Natasha

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राजा की रानी

गाड़ी ने गंगामाटी में कब प्रवेश किया मुझे नहीं मालूम; मुझे तो तब मालूम हुआ जब गाड़ी नये मकान के दरवाजे पर जा खड़ी हुई। तब सबेरा हो चुका था। एक साथ चार बैलगाड़ियों के विविध और विचित्र कोलाहल से चारों तरफ भीड़ तो कम नहीं मालूम हुई। रतन की कृपा से पहले ही सुन चुका था कि गाँव में मुख्यत: छोटी जात ही बसती है। देखा कि नाराजगी में भी उसने बिल्कुचल झूठ नहीं कहा था। ऐसे जाड़े-पाले में तड़के ही पचास-साठ नाना उमर के लड़के-लड़कियाँ, नंग-धड़ंग और उघड़े बदन, शायद हाल ही सोते से उठकर तमाशा देखने के लिए जमा हो गये हैं। पीछे से बाप-महतारियों का झुण्ड भी यथा-योग्य स्थान से ताक-झाँक रहा है। उन सबकी आकृति और पहनावा देखकर उनकी कुलीनता के बारे में और किसी के मन में चाहे हुछ भी हो, मगर, रतन के मन में शायद संशय की भाप भी बाकी न रही। उसका सोते से उठा हुआ चेहरा निमेष-मात्र में विरक्ति और क्रोध से बर्रों के छत्ते के समान भीषण हो उठा। मालकिन के दर्शन करने की अतिव्यग्रता से कुछ लड़के-बाले कुछ आत्म-विस्तृत होकर सटते आ रहे थे। देखते ही रतन ने ऐसे बिकट-रूप से उन्हें धर-खदेड़ा कि सामने अगर दो गाड़ीवान न होते तो वहीं एक खून-खराबी हुई धरी थी। रतन को जरा भी लज्जा का अनुभव न हुआ। मेरी तरफ देखकर बोली, “दुनिया की छोटी जात सब यहीं आकर मरी है! देखी बाबूजी, छोटी जात की हिमाकत? जैसे रथ-यात्रा देखने आए हों! हमारे यहाँ के भले आदमी क्या यहाँ आकर रह सकते हैं बाबूजी? अभी सब छू-छा करके एकाकार कर देंगे।”

'छू-छा' शब्द सबसे पहले पहुँचा राजलक्ष्मी के कानों में। उसका चेहरा अप्रसन्न-सा हो गया।

साधुजी अपना बॉक्स उतारने में व्यस्त थे। अपना काम खतम करके वे एक लोटा निकालकर आगे बढ़ आये और पास ही जिस लड़के को पाया उसका हाथ पकड़कर बोले, “अरे लड़के, जा तो भइया, यहाँ कहीं अच्छा-सा तालाब-आलाब हो हो तो एक लोटा पानी तो ले आ, चाय बनानी है।” यह कहकर उन्होंने लोटा उसके हाथ में थमा दिया, फिर सामने खड़े हुए एक अधेड़ उमर के आदमी से कहा, “चौधरी, आसपास किसी के यहाँ गाय हो तो बता देना भइया, छटाक-भर दूध माँग लाऊँ। गाँव की ताजी खालिस चीज ठहरी, चाय का रंग ऐसा बढ़िया आयेगा जीजी...” फिर उन्होंने एक बार अपनी जीजी के चेहरे की तरफ देखा। मगर 'जीजी' ने इस उत्साह में जरा भी साथ नहीं दिया। अप्रसन्न मुख से जरा मुसकराकर कहा, “रतन, जा तो भइया, लोटा माँजकर जरा पानी तो ले आ।”

रतन के मिजाज का संवाद पहले ही दे चुका हँ। उसके बाद जब उस पर ऐसे जाड़े-पाले में न जाने कौन एक अनजान साधु के लिए, मालूम नहीं कहाँ के तालाब से, पानी लाने का भार पड़ा, तब वह अपने को न रोक सका। एक ही क्षण में उसका सारा गुस्सा जाकर पड़ा, उससे भी जो छोटा था, उस अभागे लड़के पर। वह उसे एक जोर की धमकी देकर बोला, “पाजी बदमाश कहीं का, लोटा क्यों छुआ तूने? चल हरामजादे, लोटा माँजकर पानी में डुबो देना।” इतना कहकर मानो वह सिर्फ अपनी ऑंख-मुख की चेष्टा से ही लड़के को गरदनियाँ देता हुआ ले गया।

उसकी करतूत देखकर साधु हँस पड़े, मैं भी हँस दिया। राजलक्ष्मी ने खुद भी जरा सलज्ज हँसी हँसकर कहा, “गाँव में तुमने तो उथल-पुथल मचा दी आनन्द, साधुओं को शायद रात बीतने के पहले ही चाय चाहिए?”

साधु ने कहा, “गृहस्थों के लिए रात नहीं बीती तो क्या हम लोगों के लिए भी नहीं बीतेगी? खूब। लेकिन दूध की तजवीज तो होनी चाहिए। अच्छा, घर में घुसकर देखा तो जाय, लकड़ी-बकड़ी, चूल्हा-ऊल्हा कुछ है या नहीं। ओ चौधरी, चलो न भइया, किसके यहाँ गाय है, चलके जरा दिखा दो। जीजी, कल के उस बर्तन में बरफी-अरफी कुछ बची थी न? या गाड़ी ही में अंधेरे में उसे खतम कर दिया!

राजलक्ष्मी को हँसी आ गयी। मुहल्ले की जो दो-चार औरतें दूर खड़ी देख रही थीं, उन्होंने मुँह फेर लिया।

इतने में गुमाश्ता काशीराम कुशारी महाशय घबराये हुए आ पहुँचे। साथ में उनके तीन-चार आदमी थे; किसी के सिर पर भर-टोकनी शाक-सब्जी और तरकारी थी, किसी के हाथ में भर-लोटा दूध, किसी के हाथ में दही का बर्तन और किसी के हाथ में बड़ी-सी रोहू मछली। राजलक्ष्मी ने उन्हें नमस्कार किया। वे आशीर्वाद के साथ, अपने आने में जरा देर हो जाने के लिए, तरह-तरह की कैफियत देने लगे। आदमी तो मुझे अच्छा ही मालूम हुआ। उमर पचास से ज्यादा होगी। शरीर कुछ कृश, दाढ़ी-मूछें मुड़ी हुईं और रंग साफ। मैंने उन्हें नमस्कार किया, उन्होंने भी प्रति-नमस्कार किया। परन्तु, साधुजी इस सब प्रचलित शिष्टाचारों के पास से भी न फटके। उन्होंने तरकारी की टोकनी अपने हाथ से उतरवाकर उसमें से एक-एक का विश्लेषण करके विशेष प्रशंसा की। दूध खालिस है, इस विषय में अपना नि:संशय मत जाहिर किया और मछली के वजन का अनुमान करके उसके आस्वाद के विषय में उपस्थित सभी को आशान्वित कर दिया।

साधु महाराज के शुभागमन के विषय में गुमाश्ता साहब को पहले के कुछ खबर नहीं मिली थी; इसलिए, उन्हें कुछ कुतूहल-सा हुआ। राजलक्ष्मी ने कहा, “सन्यासी को देखकर आप डरें नहीं कुशारी महाशय, ये मेरे भाई हैं।” फिर जरा हँसकर मृदु कण्ठ से कहा, “और बार-बार गेरुआ वसन छुड़वाना मानो मेरा काम ही हो गया है!”

बात साधुजी के कानो में भी पड़ी। बोले, “पर यह काम उतना आसान न होगा, जीजी।” यों कहकर मेरी ओर कनखियों से देख के जरा हँसे। इसके मानी मैं भी समझ गया और राजलक्ष्मी भी। मगर प्रत्युत्तर में उसने सिर्फ जरा मुसकराकर कहा, “सो देखा जायेगा।”

मकान के भीतर प्रवेश करके देखा गया कि कुशारी महाशय ने इन्तज़ाम कुछ बुरा नहीं किया है। बहुत ही जल्दी की वजह से उन्होंने खुद अन्यत्र जाकर पुराने कचहरी वाले मकान को थोड़ा-बहुत जीर्णोद्वार कराके खासा रहने- लायक बना दिया है। भीतर रसोई और भण्डार-घर के सिवा सोने के लिए दो कमरे भी हैं। कमरे हैं तो मिट्टी के ही और ऊपर है, मगर खूब ऊँचे और बड़े हैं। बाहर की बैठक भी बहुत अच्छी है। ऑंगन लम्बा-चौड़ा, साफ-सुथरा और मिट्टी की चहारदीवारी से घिरा हुआ है। एक तरफ छोटा-सा एक कुऑं है, और उसके पास ही दो-तीन तगर और शेफाली के पेड़ हैं। दूसरी तरफ बहुत-से छोटे-बड़े तुलसी के पौधों की पंक्ति है, और चार-पाँच जुही और मल्लिका के झाड़ हैं। कुल मिलाकर जगह बहुत अच्छी है, देखकर मन को तृप्ति हुई।

सबसे बढ़कर उत्साह देखा गया सन्यासी महाशय में। जो कुछ उनकी निगाह में पड़ा उसी पर वह उच्च कण्ठ से आनन्द प्रकट करने लगे, जैसे ऐसा और कभी उन्होंने देखा ही न हो। मैं, शोरगुल न मचाने पर भी, मन-ही-मन खुश ही हुआ। राजलक्ष्मी अपने भइया के लिए रसोई में चाय बना रही थी, इसलिए उसके चेहरे का भाव ऑंखों से तो नहीं दिखाई दिया, परन्तु मन का भाव किसी से छिपा भी न रहा। सिर्फ साथ नहीं दिया तो एक रतन ने। वह मुँह को उसी तरह फुलाए हुए एक खम्भे के सहारे चुपचाप बैठा रहा।

चाय बनी। साधुजी कल की बची हुई मिठाई के साथ चुपचाप दो प्याला चाय चढ़ाकर उठ बैठे और मुझसे बोले, “चलिए न, जरा घूम-फिर कर गाँव देख आवें। बाँध भी तो ज्यादा दूर नहीं, उधर के उधर ही नहा भी आयेंगे। जीजी, आइए न, जमींदारी देखभाल आवें। शायद शरीफ लोग तो कोई होंगे नहीं, शरम करने की भी विशेष कोई जरूरत नहीं। जायदाद है अच्छी, देख के लोभ होता है।”

राजलक्ष्मी ने हँसकर कहा, “सो तो मैं जानती हूँ। सन्यासियों का स्वभाव ही ऐसा होता है।”

हमारे साथ रसोइया ब्राह्मण तथा और भी एक नौकर आया था। वे दोनों रसोई की तैयारी कर रहे थे। राजलक्ष्मी ने कहा, “नहीं महाराज, तुम्हारे हाथ ऐसी ताजी मछली सौंपने का हियाव नहीं पड़ता, नहा के लौटने पर रसोई मैं ही चढ़ाऊँगी।” यह कहकर वह हमारे साथ चलने की तैयारी करने लगी।

अब तक रतन ने किसी बातचीत या काम में साथ नहीं दिया था। हम लोग जाने लगे तो वह अत्यन्त धीर-गम्भीर स्वर में बोला, “माँ जी, उस बाँध या ताल, न जाने इस मुए देश के लोग क्या कहते हैं, उसमें आप मत नहाइएगा। बड़ी जबरदस्त जोंकें हैं उसमें, एक-एक, सुनते हैं, हाथ-हाथ भर की।”

दूसरे ही क्षण राजलक्ष्मी का चेहरा मारे डर के फक पड़ गया, “कहता क्या है रतन, उसमें क्या बहुत जोंकें हैं?”

रतन ने गरदन हिलाकर कहा, “जी हाँ, सुना तो ऐसा ही है।”

साधु ने डपटकर कहा, “जी हाँ, सुन तो आया ही होगा! इस नाई ने सोच-सोचकर अच्छी तरकीब निकाली है!” रतन के मन का भाव और जाति का परिचय साधु ने पहले ही से प्राप्त कर लिया था; हँस के कहा, “जीजी, इसकी बात मत सुनो, चलो चलें। जोंकें हैं या नहीं, इस बात की परीक्षा न हो तो हम ही लोगों से करा लेना।”

मगर उनकी जीजी एक कदम भी आगे न बढ़ीं। जोंक के नाम से एकदम अचल होकर बोलीं, “मैं कहती हूँ, आज न हो तो रहने दो, आनन्द, नयी जगह ठहरी, अच्छी तरह बिना जाने-समझे ऐसा दु:साहस करना, ठीक नहीं होगा। रतन, तू जा भइया, यहीं पर दो कलसे पानी कुऑं से ले आ।” मुझे आदेश मिला, “तुम कमजोर आदमी हो, सो कहीं किसी अनजान बाँध-ऑंध में नहा-नुहू मत आना। घर पर ही दो लोटा पानी डालकर आज का काम निकाल लेना।”

साधुजी ने हँसकर कहा, “और मैं ही क्या इतना उपेक्षणीय हूँ जीजी, जो मुझे ही सिर्फ उस जोंकोंवाले तालाब में पठाए देती हो?”

बात कोई बड़ी नहीं थी, मगर इतने ही से राजलक्ष्मी की ऑंखें मानो सहसा डबडबा आईं। उसने क्षण-भर नीरव रहकर, अपनी स्निग्ध दृष्टि से मानो उन्हें अभिषिक्त करते हुए कहा, “तुम तो भइया, आदमी के हाथ से बाहर हो। जिसने माँ-बाप का कहना नहीं माना, वह क्या कहीं की एक अनजान अपरिचित बहिन की बात रखेगा?”

साधुजी जाने के लिए उद्यत होकर सहसा जरा ठहरकर बोले, “यह अनजान अपरिचित होने की बात मत कहो, बहिन। आप सब लोगों को पहिचानने के लिए ही तो घर छोड़कर निकला हूँ, नहीं तो मुझे इसकी क्या जरूरत थी, बताइए?” इतना कहकर वे जरा तेजी से बाहर चले गये, और मैं भी धीरे से उनके साथ हो लिया।

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